इकाई 1: संविधान का विकास
प्रश्न 1: "1909 के मार्ले-मिन्टो सुधार अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल सिद्ध हुए।" इस कथन की आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
उत्तर:
1909 के सुधार को मार्ले-मिन्टो सुधार कहा जाता है क्योंकि यह लॉर्ड मार्ले (ब्रिटिश भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट) और लॉर्ड मिन्टो (भारत के वायसराय) द्वारा तैयार किया गया था। इस अधिनियम का उद्देश्य भारतीयों को प्रशासन में भागीदारी देना था।
मुख्य प्रावधान:
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विधान परिषदों का विस्तार किया गया।
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मुसलमानों को पृथक निर्वाचन प्रणाली दी गई।
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कुछ भारतीयों को केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान मंडलों में नामित किया गया।
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सदस्यों को प्रश्न पूछने और बहस में भाग लेने का अधिकार मिला।
कमियाँ / असफलताएँ:
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सुधार केवल नाममात्र के थे, शक्तियाँ अंग्रेजों के हाथ में ही रहीं।
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भारत की स्वायत्तता की कोई स्पष्ट योजना नहीं थी।
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मुसलमानों को अलग निर्वाचन देकर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया।
-
भारतीय जनता की राजनीतिक आकांक्षाओं को संतुष्ट नहीं किया गया।
सारांश:
मार्ले-मिन्टो सुधारों का उद्देश्य भारतीयों को शासन में भागीदारी देना था, परंतु ये सुधार सतही थे और असली सत्ता ब्रिटिशों के पास ही रही। इसने साम्प्रदायिकता को जन्म दिया और भारतीयों में असंतोष बढ़ाया।
प्रश्न 2: दोहरे शासन से आप क्या समझते हैं? 1919 के एक्ट के अनुसार यह क्यों जारी किया गया? इसकी क्या विशेषता थी?
उत्तर:
दोहरा शासन (Dyarchy) एक ऐसी प्रणाली थी जिसमें शासन दो हिस्सों में बाँटा गया था: एक हिस्सा ब्रिटिश अधिकारियों के पास और दूसरा भारतीय मंत्रियों के पास।
1919 के भारत सरकार अधिनियम के अनुसार:
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केंद्र में सत्ता अंग्रेजों के पास ही रही, लेकिन प्रांतों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गई।
-
‘संगठित विषय’ (law & order, finance आदि) वायसराय और उसके अधिकारी संभालते थे।
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‘विकसित विषय’ (शिक्षा, स्वास्थ, कृषि आदि) भारतीय मंत्रियों को दिए गए।
विशेषताएँ:
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भारतीयों को सीमित दायरे में शासन का अनुभव मिला।
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ब्रिटिश अधिकारियों के पास वीटो पावर थी।
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गवर्नर भारतीय मंत्रियों को कभी भी हटा सकता था।
-
दोहरे शासन से जिम्मेदारी और जवाबदेही स्पष्ट नहीं थी।
सारांश:
1919 के अधिनियम में प्रांतीय स्तर पर दोहरे शासन की शुरुआत हुई, जिसमें कुछ अधिकार भारतीयों को दिए गए, लेकिन असली शक्ति ब्रिटिश अधिकारियों के पास रही। यह व्यवस्था असंतोषजनक और अस्पष्ट थी।
प्रश्न 3: भारत शासन अधिनियम, 1935 का भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण में कितना योगदान है?
उत्तर:
भारत शासन अधिनियम 1935 सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अधिनियम था। यह ब्रिटिश भारत की प्रशासनिक व्यवस्था को पूरी तरह बदलने का प्रयास था।
मुख्य योगदान:
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भारत में संघीय शासन की रूपरेखा दी गई (हालाँकि लागू नहीं हो पाया)।
-
प्रांतों को स्वायत्तता दी गई और दोहरे शासन को समाप्त किया गया।
-
केंद्र और प्रांतों के बीच विषयों को तीन सूचियों में बाँटा गया: केंद्रीय, प्रांतीय और समवर्ती।
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भारत में पहली बार निर्वाचन का व्यापक विस्तार किया गया।
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रिजर्व बैंक, लोक सेवा आयोग, और न्यायिक सेवा आयोग जैसे संस्थानों का गठन हुआ।
संविधान में प्रभाव:
-
भारतीय संविधान में संघीय ढाँचा, सूची प्रणाली, और लोक सेवा आयोग जैसे तत्व इसी अधिनियम से लिए गए।
सारांश:
भारत शासन अधिनियम 1935 ने भारतीय संविधान की नींव रखी। कई महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक ढाँचे और संस्थाएं इसी अधिनियम से प्रेरित हैं।
प्रश्न 4: ब्रिटिश काल में भारत के संवैधानिक विकास पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
उत्तर:
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में कई संवैधानिक सुधार किए गए जिनका उद्देश्य शासन को अधिक प्रभावशाली बनाना था, लेकिन वे भारत की स्वतंत्रता की मांगों को संतुष्ट नहीं कर सके।
मुख्य चरण:
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1773 का रेगुलेटिंग एक्ट – गवर्नर जनरल की व्यवस्था।
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1858 का अधिनियम – ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर भारत सीधे ब्रिटिश ताज के अधीन आया।
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1909 का मार्ले-मिन्टो सुधार – सीमित प्रतिनिधित्व, पृथक निर्वाचन।
-
1919 का अधिनियम – दोहरा शासन, केंद्र में ब्रिटिश शक्ति बनी रही।
-
1935 का अधिनियम – संघीय संरचना, प्रांतीय स्वायत्तता, सूची प्रणाली, लोक सेवा आयोग की स्थापना।
सारांश:
ब्रिटिश शासन में भारत का संवैधानिक विकास क्रमिक और नियंत्रित रहा। हालांकि इससे भारत में संवैधानिक संस्थाओं की नींव पड़ी, लेकिन यह स्वतंत्रता और पूर्ण स्वराज के आदर्श से बहुत दूर था।
इकाई 2: संविधान निर्माण, संविधान के स्रोत
प्रश्न 1: भारतीय संविधान के निर्माण के इतिहास का वर्णन कीजिए?
उत्तर:
भारतीय संविधान का निर्माण स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा द्वारा किया गया। यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जिसकी शुरुआत 1946 में हुई और समाप्ति 26 नवंबर 1949 को संविधान के अंगीकरण के साथ हुई।
मुख्य बिंदु:
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संविधान सभा की स्थापना – 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार संविधान सभा का गठन हुआ।
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डॉ. भीमराव अंबेडकर को संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया।
-
संविधान सभा में विभिन्न क्षेत्रों, वर्गों और विचारों के प्रतिनिधि थे।
-
संविधान पर लगभग 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन तक गहन चर्चा हुई।
-
26 नवंबर 1949 को संविधान स्वीकार हुआ और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।
सारांश:
भारतीय संविधान का निर्माण संविधान सभा द्वारा लोकतांत्रिक चर्चा और विचार-विमर्श के माध्यम से हुआ, जिसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व था और यह विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान बना।
प्रश्न 2: भारतीय संविधान विभिन्न देशों की संवैधानिक प्रक्रियाओं का मिला-जुला स्वरूप है। इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान को एक मिश्रित या संकलित संविधान कहा जाता है क्योंकि इसमें अनेक देशों की संवैधानिक विशेषताओं को अपनाया गया है।
मुख्य उदाहरण:
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ब्रिटेन से – संसदीय प्रणाली, कानून का शासन, लोकतांत्रिक परंपराएँ।
-
अमेरिका से – मौलिक अधिकार, न्यायिक पुनरावलोकन, राष्ट्रपति की आपात शक्तियाँ।
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आयरलैंड से – नीति निर्देशक तत्व।
-
ऑस्ट्रेलिया से – संघात्मक ढांचा, समवर्ती सूची।
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कनाडा से – मजबूत केंद्र, राज्यपाल की भूमिका।
-
सोवियत संघ से – मूल कर्तव्य।
सारांश:
भारतीय संविधान विभिन्न देशों के संवैधानिक अनुभवों का समन्वय है। यह विश्व के श्रेष्ठ संविधानों की विशेषताओं को भारतीय परिस्थिति के अनुसार ढालकर बनाया गया है।
प्रश्न 3: भारतीय संविधान के देशी तथा विदेशी स्रोतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में देशी (स्वदेशी) और विदेशी (विदेशों से लिए गए) दोनों प्रकार के स्रोतों का योगदान है।
देशी स्रोत:
-
मनुस्मृति, महाभारत, arthashastra – प्राचीन भारत की शासन प्रणाली से प्रेरणा।
-
स्वराज विधेयक, 1895 व 1946 का प्रस्तावित संविधान – संविधान सभा की तैयारी में सहायक।
-
नेहरू रिपोर्ट (1928) – मौलिक अधिकार, धर्मनिरपेक्षता, संघीय ढांचे का विचार।
विदेशी स्रोत:
देश | विशेषताएँ |
---|---|
ब्रिटेन | संसदीय प्रणाली, कानून का शासन |
अमेरिका | मौलिक अधिकार, न्यायिक पुनरावलोकन, स्वतंत्र न्यायपालिका |
आयरलैंड | नीति निर्देशक तत्व |
ऑस्ट्रेलिया | समवर्ती सूची, अनुच्छेदों की भाषा |
कनाडा | शक्तिशाली केंद्र, राज्यपाल की भूमिका |
जापान | विधियों की प्रक्रिया |
रूस (पूर्व) | मूल कर्तव्य |
भारतीय संविधान देशी परंपराओं और विदेशी संविधानों दोनों से प्रेरित है। यह एक ऐसा दस्तावेज़ है जो भारतीय संस्कृति के साथ-साथ वैश्विक अनुभवों का भी आदान-प्रदान करता है।
इकाई 3: संविधान का दर्शन
प्रश्न 1: भारतीय संविधान की उद्देशिका आज तक अंकित इस प्रकार के प्रलेखों में सबसे उत्तम है। इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संविधान की उद्देशिका (Preamble) संविधान की आत्मा है। यह बताती है कि संविधान किन मूल्यों पर आधारित है और किस प्रकार के भारत की परिकल्पना करता है।
मुख्य बातें:
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उद्देशिका में स्पष्ट किया गया है कि भारत एक संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है।
-
यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को नागरिकों को देने का वादा करता है।
-
यह संविधान की भावना और दिशा को दिखाती है।
उत्कृष्टता के कारण:
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यह संक्षिप्त होते हुए भी स्पष्ट, उद्देश्यपूर्ण और प्रेरणादायक है।
-
यह देश की शासन प्रणाली का मार्गदर्शन करती है।
-
यह संविधान की आत्मा को दर्शाती है।
सारांश:
भारतीय संविधान की उद्देशिका एक उत्कृष्ट और प्रेरणादायक दस्तावेज़ है, जो संविधान की मूल भावना और आदर्शों का मार्गदर्शन करती है।
प्रश्न 2: "उद्देशिका जो संविधान की भूमिका है, संविधान के स्त्रोत, अनुशक्ति, ढाँचे, उद्देश्य तथा विषय-वस्तु की चर्चा करता है।" इस कथन की समीक्षा कीजिए। भारतीय संविधान की उद्देशिका में वर्णित शब्दों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
यह कथन बिल्कुल सही है। उद्देशिका संविधान की भूमिका के रूप में कार्य करती है और यह स्पष्ट करती है कि संविधान का स्रोत जनता है और उसका उद्देश्य क्या है।
उद्देशिका के महत्वपूर्ण शब्द:
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संप्रभुता (Sovereign) – भारत किसी के अधीन नहीं है, अपने निर्णय स्वयं लेता है।
-
समाजवाद (Socialist) – समाज में समानता, गरीबी हटाना, संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण।
-
पंथनिरपेक्ष (Secular) – राज्य किसी धर्म का पक्ष नहीं लेता।
-
लोकतंत्र (Democratic) – जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन।
-
गणराज्य (Republic) – सर्वोच्च पद (राष्ट्रपति) वंशानुगत नहीं, चुनाव से आता है।
-
न्याय – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय।
-
स्वतंत्रता – विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता।
-
समानता – सभी नागरिकों को समान अवसर और कानून के समक्ष समानता।
-
बंधुता – सभी के बीच भाईचारे की भावना।
सारांश:
उद्देशिका संविधान का सार है। यह भारत के शासन, उद्देश्यों और नागरिकों के अधिकारों को संक्षेप में बताती है। इससे संविधान की पूरी भावना झलकती है।
इकाई 4 – भारतीय संविधान का स्वरूप
प्रश्न 1: भारतीय संविधान की विशेषताओं की विवेचना कीजिए?
उत्तर:
भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है। इसकी कुछ मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
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लिखित संविधान – यह एक विस्तृत और लिखित दस्तावेज है, जिसमें केंद्र और राज्यों के अधिकार स्पष्ट रूप से वर्णित हैं।
-
संघात्मक ढाँचा – भारत एक संघ है जिसमें केंद्र और राज्य दोनों के अलग-अलग अधिकार हैं।
-
संसदीय शासन प्रणाली – भारत में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सरकार चलती है, राष्ट्रपति नाममात्र का प्रमुख होता है।
-
न्यायिक पुनरावलोकन – न्यायपालिका को यह अधिकार है कि वह असंवैधानिक कानूनों को रद्द कर सकती है।
-
मौलिक अधिकार और कर्तव्य – नागरिकों को अधिकार और जिम्मेदारियाँ दी गई हैं।
-
नीति निर्देशक तत्व – ये राज्य को शासन की नीति बनाने में मार्गदर्शन करते हैं।
-
धर्मनिरपेक्षता – राज्य सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है।
-
संविधान संशोधन की व्यवस्था – इसमें संशोधन का लचीला और कठोर दोनों प्रकार का प्रावधान है।
-
स्वतंत्र न्यायपालिका – न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष है।
सारांश:
भारतीय संविधान एक विस्तृत, लोकतांत्रिक और आधुनिक दस्तावेज है, जिसमें नागरिकों के अधिकारों और शासन प्रणाली का स्पष्ट विवरण है।
प्रश्न 2: आप इस बात से कहाँ तक सहमत हैं कि भारतीय संविधान एकात्मक लक्षणों वाले संघात्मक शासन की स्थापना करता है?
उत्तर:
भारत को "संघ" कहा गया है, लेकिन इसका संघात्मक ढाँचा एकात्मक (केंद्रित) प्रकृति का है। इसका कारण है:
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सशक्त केंद्र सरकार – केंद्र के पास राज्यों से अधिक अधिकार हैं।
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राज्यपाल की नियुक्ति – राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र द्वारा होती है, जो केंद्र के निर्देश पर कार्य करता है।
-
एकीकृत न्यायपालिका – केंद्र और राज्यों के लिए अलग-अलग न्यायपालिका नहीं है।
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संघ सूची की प्रधानता – संसद को आपातकाल में राज्य विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार है।
-
वित्तीय नियंत्रण – केंद्र के पास राजस्व के अधिक साधन हैं।
हालांकि, भारत में कुछ संघीय विशेषताएँ भी हैं, जैसे – दोहरी सरकार, केंद्र-राज्य विभाजन, लिखित संविधान आदि।
सारांश:
भारतीय संविधान संघात्मक है, लेकिन इसमें एकात्मक तत्व अधिक हैं। इसे एकात्मक प्रवृत्ति वाला संघ कहा जा सकता है।
इकाई 5 – नागरिकता
प्रश्न 1: नागरिकता का अर्थ बताते हुए इसके ऐतिहासिक विकास पर विस्तृत विवेचना प्रस्तुत कीजिए?
उत्तर:
नागरिकता का अर्थ है – किसी व्यक्ति का उस देश के प्रति स्थायी संबंध, जिससे उसे विशेष अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं।
ऐतिहासिक विकास:
-
ब्रिटिश काल में – भारत के लोगों को ब्रिटिश प्रजा कहा जाता था, उन्हें पूर्ण नागरिक अधिकार नहीं मिलते थे।
-
1947 में स्वतंत्रता के बाद – भारतीयों को नागरिकता का अधिकार देने की आवश्यकता महसूस हुई।
-
संविधान द्वारा प्रावधान – भारतीय संविधान के भाग 2 (अनुच्छेद 5 से 11) में नागरिकता के नियम दिए गए।
-
1955 का नागरिकता अधिनियम – इसमें नागरिकता प्राप्त करने और समाप्त करने के विस्तृत प्रावधान किए गए।
सारांश:
नागरिकता वह संबंध है जो व्यक्ति को राज्य से जोड़ता है। भारत में स्वतंत्रता के बाद नागरिकता की स्पष्ट व्यवस्था की गई ताकि प्रत्येक भारतीय को अधिकार और जिम्मेदारी दी जा सके।
प्रश्न 2: भारतीय नागरिकता के अर्जन एवं समाप्ति की विधियों का वर्णन कीजिए?
उत्तर:
भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार नागरिकता प्राप्त करने और समाप्त होने की पाँच प्रमुख विधियाँ हैं:
नागरिकता प्राप्त करने की विधियाँ:
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जन्म से – यदि कोई व्यक्ति भारत में जन्मा है, तो उसे नागरिकता मिलती है (कुछ शर्तों के अनुसार)।
-
वंशानुक्रम से – भारतीय माता-पिता की संतान को नागरिकता मिलती है।
-
पंजीकरण द्वारा – विशेष मामलों में व्यक्ति सरकार से पंजीकरण द्वारा नागरिकता ले सकता है।
-
देशीकरण (Naturalization) द्वारा – यदि कोई व्यक्ति भारत में कुछ वर्षों तक रह चुका है, तो वह आवेदन देकर नागरिकता ले सकता है।
-
भारतीय क्षेत्र में सम्मिलन द्वारा – जब कोई क्षेत्र भारत में शामिल होता है तो वहाँ के लोगों को भारतीय नागरिकता मिलती है (जैसे पुडुचेरी, गोवा)।
नागरिकता समाप्त होने की विधियाँ:
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त्याग (Renunciation) – व्यक्ति स्वयं नागरिकता छोड़ देता है।
-
निरोध (Termination) – यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता ले लेता है।
-
बर्खास्तगी (Deprivation) – सरकार यदि नागरिकता हटाने का कारण उचित पाए, तो नागरिकता छीन सकती है (जैसे देशद्रोह, धोखाधड़ी)।
सारांश:
भारतीय नागरिकता कानून नागरिकता प्राप्त करने और समाप्त करने की स्पष्ट विधियाँ बताता है, जिससे नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य सुरक्षित रहते हैं।
इकाई 6 – मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्य
प्रश्न 1: मौलिक अधिकार से आप क्या समझते हैं? स्वतंत्रता के अधिकार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं जो भारतीय नागरिकों को संविधान द्वारा दिए गए हैं और जिनकी रक्षा सर्वोच्च न्यायालय करता है। ये अधिकार व्यक्ति को स्वतंत्र और सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर देते हैं।
संविधान में कुल 6 मौलिक अधिकार हैं:
-
समानता का अधिकार
-
स्वतंत्रता का अधिकार
-
शोषण के विरुद्ध अधिकार
-
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार
-
सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
-
संवैधानिक उपचार का अधिकार
स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) –
यह अधिकार अनुच्छेद 19 से 22 तक दिया गया है और इसमें शामिल हैं:
-
वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
-
शांति पूर्ण रूप से सभा करने का अधिकार
-
संघ बनाने का अधिकार
-
भारत के किसी भी भाग में स्वतंत्र रूप से आने-जाने का अधिकार
-
स्वेच्छा से कोई व्यवसाय, व्यापार करने का अधिकार
-
जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21)
-
कानून के अनुसार गिरफ़्तारी और बंदी का संरक्षण (अनुच्छेद 22)
सारांश:
मौलिक अधिकार नागरिकों को स्वतंत्रता और गरिमा से जीने का हक़ देते हैं। स्वतंत्रता का अधिकार, व्यक्ति को सोचने, बोलने और कार्य करने की खुली छूट देता है, जब तक कि वह कानून के विरुद्ध न हो।
प्रश्न 2: संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार भारत के संविधान में अनुच्छेद 29 और 30 में दिए गए हैं। ये अधिकार अल्पसंख्यकों और विभिन्न सांस्कृतिक समूहों को उनकी पहचान बनाए रखने की स्वतंत्रता देते हैं।
-
अनुच्छेद 29 – संस्कृति की रक्षा का अधिकार
-
भारत के किसी भी नागरिक या समूह को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने और प्रचार-प्रसार करने का अधिकार है।
-
राज्य किसी भी नागरिक को किसी शैक्षिक संस्था में प्रवेश से केवल धर्म, जाति, भाषा के आधार पर नहीं रोक सकता।
-
-
अनुच्छेद 30 – अल्पसंख्यकों के शैक्षिक अधिकार
-
धार्मिक या भाषायी अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वे अपनी पसंद की शैक्षिक संस्थाएँ स्थापित करें और उनका संचालन करें।
-
राज्य ऐसी संस्थाओं से भेदभाव नहीं कर सकता।
-
सारांश:
संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार भारत की विविधता को सुरक्षित रखते हैं और अल्पसंख्यकों को यह स्वतंत्रता देते हैं कि वे अपनी भाषा, धर्म और संस्कृति के अनुसार शिक्षा प्राप्त करें और संस्थान चलाएं।
इकाई 7 – राज्य के नीति-निर्देशक तत्व
प्रश्न 1: नीति निर्देशक तत्व राज्य को कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए किया गया भागीरथ प्रयास है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नीति निर्देशक तत्व (Directive Principles of State Policy) संविधान के भाग 4 (अनुच्छेद 36 से 51) में वर्णित हैं। ये राज्य को शासन के सिद्धांतों का मार्गदर्शन देते हैं।
इनका उद्देश्य भारत को एक "कल्याणकारी राज्य" बनाना है जहाँ सभी नागरिकों को समान अवसर, सामाजिक न्याय और सम्मान मिले।
मुख्य नीति तत्व:
-
समान वेतन और कार्य के लिए समान वेतन
-
शोषण से मुक्त समाज की स्थापना
-
निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा
-
न्याय – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक – की स्थापना
-
न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना
-
स्वास्थ्य, पोषण और बच्चों की देखभाल
-
महिलाओं और मजदूरों का संरक्षण
-
पंचायती राज संस्थाओं का प्रोत्साहन
-
अंतरराष्ट्रीय शांति की दिशा में कार्य करना
सारांश:
नीति निर्देशक तत्व कोई कानूनी आदेश नहीं हैं, लेकिन ये राज्य को यह निर्देश देते हैं कि उसे जनता के लिए एक कल्याणकारी और न्यायपूर्ण समाज बनाना चाहिए।
प्रश्न 2: नीति निर्देशक तत्व और मौलिक अधिकारों में अंतर करते हुए, भारत में इनके महत्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पहलू | मौलिक अधिकार | नीति निर्देशक तत्व |
---|---|---|
प्रकृति | न्यायालय में लागू होते हैं | न्यायालय में लागू नहीं होते |
लक्ष्य | व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा | समाज का समग्र विकास |
अनुपालन | बाध्यकारी (Compulsory) | मार्गदर्शक (Directive) |
संविधान में स्थान | भाग 3 | भाग 4 |
रक्षा | न्यायपालिका इनकी रक्षा करती है | न्यायपालिका बाध्य नहीं करती |
-
मौलिक अधिकार व्यक्ति को स्वतंत्र और सुरक्षित जीवन देता है।
-
नीति निर्देशक तत्व समाज में समानता, विकास और न्याय लाने की दिशा में राज्य को प्रेरित करते हैं।
न्यायालय का दृष्टिकोण:
हाल के वर्षों में न्यायालय ने कुछ नीति तत्वों को भी मौलिक अधिकारों के साथ जोड़कर लागू किया है (जैसे – शिक्षा का अधिकार, पर्यावरण संरक्षण आदि)।
सारांश:
मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व दोनों मिलकर व्यक्ति और समाज के संपूर्ण विकास का आधार हैं। एक व्यक्ति को शक्ति देता है, दूसरा राज्य को दिशा।
इकाई 8 – संविधान संशोधन प्रक्रिया
प्रश्न 1: भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रियाओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत का संविधान एक लचीला और कठोर दोनों प्रकार का संविधान है, क्योंकि इसमें कुछ संशोधन आसानी से हो सकते हैं और कुछ कठिन प्रक्रियाओं द्वारा किए जाते हैं।
संविधान संशोधन की प्रक्रिया – अनुच्छेद 368 में दी गई है। इसके अनुसार तीन प्रकार के संशोधन संभव हैं:
1. सरल बहुमत से संशोधन (Simple Majority):
इसमें संसद के दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का बहुमत चाहिए।
जैसे –
-
राज्यसभा और लोकसभा की कार्यप्रणाली
-
नागरिकता से जुड़े कुछ प्रावधान
-
संसद की सदस्य संख्या में बदलाव
2. विशेष बहुमत से संशोधन (Special Majority):
इसमें संसद के दोनों सदनों में कुल सदस्यों का कम से कम आधे सदस्य उपस्थित हों और 2/3 उपस्थित सदस्यों का समर्थन आवश्यक होता है।
जैसे –
-
मूल अधिकारों में संशोधन
-
नीति निर्देशक तत्वों में परिवर्तन
-
केंद्र-राज्य संबंध
3. विशेष बहुमत + आधे राज्यों की मंज़ूरी:
कुछ महत्वपूर्ण संशोधनों के लिए संसद के विशेष बहुमत के साथ-साथ कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं की मंजूरी भी ज़रूरी होती है।
जैसे –
-
राष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित
-
सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट की शक्तियाँ
-
संघ और राज्यों के बीच संबंध
सारांश:
संविधान संशोधन की प्रक्रिया भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और लचीलापन दोनों को दर्शाती है। यह प्रक्रिया संविधान को समय के साथ बदलने और सुधारने की अनुमति देती है।
इकाई 9 – राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति
प्रश्न 1: राष्ट्रपति कार्यपालिका के औपचारिक प्रधान से अधिक है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति भारत का संवैधानिक प्रमुख होता है। वह कार्यपालिका का औपचारिक प्रधान है लेकिन उसकी शक्तियाँ सीमित होती हैं।
हालाँकि, राष्ट्रपति का कार्य केवल औपचारिक नहीं है, बल्कि कुछ मामलों में वह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है:
1. कार्यपालिका शक्तियाँ:
-
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रियों की नियुक्ति करता है।
-
वह राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति करता है।
-
अंतरराष्ट्रीय संधियाँ, युद्ध और शांति की घोषणाएँ राष्ट्रपति के नाम पर होती हैं।
2. विधायी शक्तियाँ:
-
संसद का सत्र बुलाना, स्थगित करना और संसद को भंग करना।
-
संसद द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देना।
-
अध्यादेश जारी करना (जब संसद सत्र में न हो)।
3. न्यायिक शक्तियाँ:
-
दया याचिकाओं पर निर्णय लेना
-
किसी अपराधी की सजा माफ करना, कम करना या स्थगित करना
4. आपातकालीन शक्तियाँ:
राष्ट्रपति आपातकाल घोषित कर सकता है –
-
राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)
-
राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356)
-
वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)
सारांश:
राष्ट्रपति भले ही औपचारिक प्रधान हो, लेकिन उसकी संवैधानिक शक्तियाँ और निर्णयात्मक भूमिका उसे एक प्रभावशाली पद बनाती हैं, विशेषकर संकट की घड़ी में।
प्रश्न 2: राष्ट्रपति के चुनाव प्रक्रिया की विवेचना कीजिए?
उत्तर:
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव परोक्ष रूप से किया जाता है, यानी वह जनता द्वारा सीधे नहीं चुना जाता।
चुनाव में भाग लेने वाले:
-
निर्वाचक मंडल (Electoral College):
-
संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य
-
सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (दिल्ली, पुडुचेरी) की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य
-
नामित सदस्य मतदान में भाग नहीं लेते।
मतदान पद्धति:
संवैधानिक प्रतिनिधिक प्रणाली और एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (Proportional Representation & Single Transferable Vote) के आधार पर चुनाव होता है।
-
हर मतदाता को मतों का मूल्य (vote value) मिलता है।
-
राज्यों के मतदाताओं के मतों का मूल्य उनकी जनसंख्या के आधार पर तय होता है।
-
संसद के सदस्यों के मतों का मूल्य राज्यों के मतों के कुल मूल्य के बराबर होता है।
मतगणना:
यदि कोई उम्मीदवार पहले चरण में ही कुल वैध मतों का 50%+1 वोट प्राप्त कर लेता है, तो वह विजेता होता है।
सारांश:
राष्ट्रपति का चुनाव एक जटिल लेकिन निष्पक्ष प्रणाली से होता है जिसमें संघीय ढांचे को ध्यान में रखकर राज्यों और केंद्र दोनों की भागीदारी सुनिश्चित की जाती है।
इकाई 10 – प्रधानमंत्री और मंत्रीपरिषद
प्रश्न 1: भारत के प्रधानमंत्री की पद एवं स्थिति की विवेचना कीजिए?
उत्तर:
प्रधानमंत्री भारत सरकार का वास्तविक कार्यपालिका प्रमुख होता है। संविधान के अनुच्छेद 74(1) के अनुसार, राष्ट्रपति को अपनी शक्तियाँ प्रधानमंत्री और मंत्रीपरिषद की सलाह पर प्रयोग करनी होती हैं।
प्रधानमंत्री की स्थिति और भूमिका:
-
कार्यपालिका प्रमुख:
– राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त मंत्रीपरिषद का नेतृत्व करता है।
– सभी विभागों का समन्वय करता है। -
नीति निर्माता:
– राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नीतियाँ प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में बनती हैं।
– वह कैबिनेट की बैठकें बुलाता है और उसकी अध्यक्षता करता है। -
संसद में नेता:
– लोकसभा में सत्तारूढ़ दल का नेता प्रधानमंत्री होता है।
– वह संसद में सरकार का प्रतिनिधित्व करता है। -
मंत्रियों का चयनकर्ता:
– राष्ट्रपति को वह मंत्रियों की नियुक्ति हेतु नाम सुझाता है और उन्हें पद से हटवाता है। -
राष्ट्रीय संकट में निर्णय लेने वाला:
– युद्ध, आपातकाल, आतंरिक संकट जैसे मुद्दों पर सरकार की रणनीति तय करता है।
सारांश:
प्रधानमंत्री भारतीय शासन प्रणाली का केंद्रबिंदु है। वह न केवल सरकार का मुखिया होता है बल्कि देश के प्रशासन का मुख्य मार्गदर्शक भी होता है।
प्रश्न 2: प्रधानमंत्री की सदन के नेता और सरकार के मुखिया के रूप में महत्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रधानमंत्री का संसद और सरकार – दोनों में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
1. संसद में नेता के रूप में:
-
लोकसभा में सत्तारूढ़ पार्टी/गठबंधन का नेता प्रधानमंत्री होता है।
-
वह संसद में सरकार की नीतियों की व्याख्या करता है और उसका बचाव करता है।
-
संसद में सरकार की स्थिरता उसकी भूमिका पर निर्भर करती है।
2. सरकार के मुखिया के रूप में:
-
सभी मंत्रालय और विभाग प्रधानमंत्री की देखरेख में कार्य करते हैं।
-
मंत्रीपरिषद उसी की सलाह पर कार्य करती है।
-
विदेश नीति, रक्षा नीति, आर्थिक नीति जैसे महत्वपूर्ण मामलों में प्रधानमंत्री की राय निर्णायक होती है।
सारांश:
प्रधानमंत्री संसद में सरकार की आवाज है और कार्यपालिका में सरकार की आत्मा। दोनों भूमिकाओं में उसका महत्व सर्वोच्च होता है।
प्रश्न 3: गठबंधन सरकारों के युग में प्रधानमंत्री कमजोर हुआ है या मजबूत? समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
भारत में 1989 के बाद गठबंधन सरकारों का दौर आया, जब कोई एक दल पूर्ण बहुमत नहीं पा सका। इससे प्रधानमंत्री की शक्ति पर असर पड़ा, लेकिन समय के साथ यह स्थिति बदलती भी रही।
कमजोरी के कारण (गठबंधन काल में):
-
प्रधानमंत्री को सहयोगी दलों के नेताओं की सहमति लेनी पड़ती है।
-
कई बार अल्पमत की सरकार को समर्थन वापस लेने की धमकी दी जाती है।
-
नीतियों पर एकमत नहीं बनता, जिससे निर्णय लेने की गति धीमी होती है।
मजबूती के पक्ष (बाद के गठबंधनों में):
-
कुछ प्रधानमंत्रियों (जैसे अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह) ने गठबंधन में भी सशक्त नेतृत्व दिया।
-
2014 और 2019 में पूर्ण बहुमत के साथ बनी सरकारों में प्रधानमंत्री की स्थिति फिर मजबूत हुई।
-
गठबंधन की मजबूरियाँ, कुशल नेतृत्व से दूर की जा सकती हैं।
सारांश:
गठबंधन सरकारों के प्रारंभिक वर्षों में प्रधानमंत्री की स्थिति कुछ हद तक कमजोर रही, लेकिन समय और नेतृत्व की क्षमता के अनुसार वह फिर सशक्त होता गया।
इकाई 11 – संसद
प्रश्न 1: संसद के संगठन और कार्यों की विवेचना कीजिए?
उत्तर:
भारत की संसद दो सदनों और राष्ट्रपति से मिलकर बनी है। यह भारत की सर्वोच्च विधायिका है।
संसद की रचना:
-
राष्ट्रपति (President)
– संसद का अभिन्न अंग है लेकिन वह संसद की बैठकों में भाग नहीं लेता।
– वह विधेयकों को स्वीकृति देता है, संसद को भंग करता है और अध्यादेश जारी करता है। -
लोकसभा (निचला सदन)
– अधिकतम 552 सदस्य हो सकते हैं (वर्तमान में 543 निर्वाचित)।
– जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनी जाती है।
– कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। -
राज्यसभा (उच्च सदन)
– अधिकतम 250 सदस्य (वर्तमान में 245)।
– राज्यों के विधानसभाओं द्वारा चुने जाते हैं।
– स्थायी सदन है; 1/3 सदस्य हर दो वर्ष में रिटायर होते हैं।
संसद के कार्य:
-
विधायी कार्य:
– कानून बनाना (विधेयकों को पारित करना)
– संविधान संशोधन -
वित्तीय कार्य:
– बजट पारित करना
– टैक्स और खर्च की मंज़ूरी देना -
कार्यपालिका पर नियंत्रण:
– प्रश्नकाल, शून्यकाल, अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से -
न्यायिक कार्य:
– राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों का महाभियोग -
चर्चा और विमर्श:
– राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस और चर्चा
सारांश:
संसद भारत के लोकतंत्र की रीढ़ है। यह कानून बनाती है, सरकार की निगरानी करती है और राष्ट्र के विकास की दिशा तय करती है।
इकाई 12 – न्यायपालिका: सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय
प्रश्न 1: सर्वोच्च न्यायालय के संगठन और कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत का सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 के अंतर्गत स्थापित किया गया है। यह देश की सबसे उच्च न्यायिक संस्था है।
संगठन:
-
मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India)
-
अन्य न्यायाधीश – संसद द्वारा संख्या निर्धारित की जाती है (2025 में कुल 34 जज हैं)।
-
नियुक्ति – राष्ट्रपति द्वारा, वरिष्ठता और योग्यता के आधार पर
-
योग्यता – हाई कोर्ट में कम से कम 5 साल का अनुभव या सुप्रीम कोर्ट में वकील के रूप में 10 साल का अनुभव
कार्य:
-
मूल अधिकारों की रक्षा:
– यदि किसी नागरिक के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है, तो सीधे सुप्रीम कोर्ट में जा सकता है (अनुच्छेद 32)। -
मूल अधिकार क्षेत्र (Original Jurisdiction):
– केंद्र और राज्यों या राज्यों के बीच विवाद सुलझाना। -
अपील क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction):
– उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनना। -
सलाहकार कार्य:
– राष्ट्रपति यदि किसी संवैधानिक प्रश्न पर सलाह मांगे तो सुप्रीम कोर्ट सुझाव देता है। -
संविधान की व्याख्या:
– संविधान के किसी प्रावधान को समझने व लागू करने की अंतिम शक्ति।
सारांश:
सुप्रीम कोर्ट भारतीय लोकतंत्र का संरक्षक है। यह कानून की व्याख्या करता है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है।
प्रश्न 2: संविधान और मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के कार्यों पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को "संविधान का रक्षक" और "मौलिक अधिकारों का संरक्षक" कहा है। इसकी यह भूमिका इसे विशेष बनाती है।
1. संविधान का रक्षक (Guardian of the Constitution):
-
सुप्रीम कोर्ट यह सुनिश्चित करता है कि संसद या राज्य विधानसभाएं संविधान के विरुद्ध कोई कानून न बनाएँ।
-
यह संवैधानिक समीक्षा (Judicial Review) की शक्ति से असंवैधानिक कानूनों को रद्द कर सकता है।
2. मौलिक अधिकारों का संरक्षक (Protector of Fundamental Rights):
-
अगर नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो सुप्रीम कोर्ट सीधे हस्तक्षेप कर सकता है।
-
यह अनुच्छेद 32 के तहत विभिन्न रिट (writs) जैसे – हैबियस कॉर्पस, मैंडमस, को-वारंटो, सर्टियोरारी, प्रोहिबिशन – जारी कर सकता है।
3. स्वतंत्रता की रक्षा:
-
सुप्रीम कोर्ट यह सुनिश्चित करता है कि सरकार नागरिकों की स्वतंत्रता को दबा न सके।
-
प्रेस की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि की रक्षा करता है।
सारांश:
सुप्रीम कोर्ट संविधान और मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। यह न केवल न्याय करता है, बल्कि भारत के लोकतंत्र और कानून की आत्मा को जीवित रखता है।
इकाई 13 – केंद्र–राज्य संबंध
प्रश्न 1: केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विधायी सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत एक संघात्मक व्यवस्था वाला देश है, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने की शक्ति दी गई है। यह शक्ति संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन सूचियों में बाँटी गई है:
1. संघ सूची (Union List):
-
इसमें 97 विषय होते हैं जैसे – रक्षा, विदेशी मामले, मुद्रा आदि।
-
केवल संसद इन पर कानून बना सकती है।
2. राज्य सूची (State List):
-
इसमें 66 विषय हैं जैसे – पुलिस, स्थानीय सरकारें, स्वास्थ्य आदि।
-
सामान्यतः केवल राज्य विधानसभाएं इन पर कानून बना सकती हैं।
-
परंतु राष्ट्रीय आपातकाल या राज्य में राष्ट्रपति शासन हो तो संसद भी कानून बना सकती है।
3. समवर्ती सूची (Concurrent List):
-
इसमें 47 विषय हैं जैसे – शिक्षा, वन, विवाह, अपराध आदि।
-
दोनों – केंद्र और राज्य – कानून बना सकते हैं, पर टकराव की स्थिति में केंद्र का कानून प्रभावी रहता है।
सारांश:
भारत में विधायी शक्तियों का स्पष्ट विभाजन केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाता है, फिर भी विशेष परिस्थितियों में केंद्र को प्राथमिकता दी जाती है।
प्रश्न 2: केन्द्र तथा राज्यों के मध्य प्रशासनिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्रशासनिक संबंध का अर्थ है कि केंद्र और राज्य अपने-अपने प्रशासनिक काम कैसे करते हैं और एक-दूसरे की मदद कैसे करते हैं।
1. कार्य विभाजन:
-
केंद्र और राज्य अपने-अपने कार्यक्षेत्र में स्वतंत्र रूप से प्रशासन चलाते हैं।
-
परंतु कुछ मामलों में केंद्र की भूमिका बड़ी होती है।
2. नियंत्रण:
-
केंद्र सरकार, राज्यों की योजनाओं की निगरानी कर सकती है।
-
कुछ विभाग जैसे – रक्षा, विदेश मामले, संचार – केवल केंद्र के अधीन होते हैं।
3. निर्देश देने की शक्ति:
-
केंद्र, राज्यों को कुछ मामलों में निर्देश दे सकता है, जैसे – संविधान लागू करने में सहयोग, सांप्रदायिक दंगों पर नियंत्रण आदि।
4. राष्ट्रपति शासन:
-
यदि कोई राज्य संविधान के अनुसार नहीं चलता, तो केंद्र वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है (अनुच्छेद 356)।
सारांश:
भारत में प्रशासनिक संबंधों में राज्यों को स्वायत्तता दी गई है, परंतु केंद्र के पास नियंत्रण की कुछ विशेष शक्तियाँ हैं, जिससे एकात्मक झुकाव भी दिखाई देता है।
इकाई 13 – केंद्र–राज्य संबंध (शेष भाग)
प्रश्न 3: केन्द्र तथा राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत में वित्तीय संबंधों का निर्धारण संविधान की भाग-12 (अनुच्छेद 268 से 293) में किया गया है। केंद्र और राज्यों की अपनी-अपनी आय और व्यय के स्रोत होते हैं।
1. कराधान का विभाजन:
-
कुछ कर केवल केंद्र ही वसूल सकता है: जैसे आयकर, सीमा शुल्क, केंद्रीय उत्पाद शुल्क।
-
कुछ कर राज्यों को मिलते हैं: जैसे – बिक्री कर (अब GST में समाहित हो गया है)।
-
कुछ कर साझा होते हैं: जैसे – जीएसटी, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों को हिस्सा मिलता है।
2. अनुदान (Grants-in-aid):
-
केंद्र सरकार राज्यों को सहायता देती है, खासकर पिछड़े राज्यों को।
-
यह संविधान के अनुच्छेद 275 के अंतर्गत दिया जाता है।
3. वित्त आयोग:
-
हर 5 साल में राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग का गठन होता है जो करों के बंटवारे का सुझाव देता है।
सारांश:
भारत में केंद्र वित्तीय रूप से अधिक मजबूत है, लेकिन राज्यों को सहयोग और संतुलन के लिए अनुदान व करों में हिस्सा दिया जाता है।
प्रश्न 4: केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विवाद के क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत के संघीय ढांचे में कई बार केंद्र और राज्यों के बीच टकराव की स्थिति पैदा होती है। ऐसे विवाद कुछ मुख्य क्षेत्रों में होते हैं:
1. अधिकारों का अतिक्रमण:
-
जब केंद्र राज्य के कार्यक्षेत्र में दखल देता है या उल्टा होता है।
2. वित्तीय विवाद:
-
करों का बंटवारा और जीएसटी से जुड़े विवाद अक्सर देखने को मिलते हैं।
3. प्रशासनिक हस्तक्षेप:
-
केंद्र द्वारा राज्य को अनुच्छेद 356 के तहत बर्खास्त करना एक विवाद का विषय बनता है।
4. राजनीतिक मतभेद:
-
अलग-अलग पार्टियों की सरकार होने पर नीतियों और कार्यक्रमों को लेकर विवाद हो सकता है।
सारांश:
केंद्र-राज्य संबंधों में सहयोग जरूरी है, परंतु अधिकारों, वित्त और राजनीति को लेकर विवाद समय-समय पर सामने आते हैं।
इकाई 14 – राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्रीपरिषद
प्रश्न 1: राज्यपाल और मुख्यमंत्री के सम्बन्धों की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
राज्य में राज्यपाल संवैधानिक प्रधान होता है और मुख्यमंत्री वास्तविक कार्यपालिका। दोनों के संबंध संविधान द्वारा तय किए गए हैं।
राज्यपाल की भूमिका:
-
मुख्यमंत्री को नियुक्त करता है।
-
मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करता है।
-
कभी-कभी विशेष परिस्थितियों में स्वतंत्र रूप से निर्णय भी लेता है (जैसे – विधानसभा भंग करना)।
मुख्यमंत्री की भूमिका:
-
राज्य का प्रशासनिक मुखिया।
-
मंत्रिपरिषद का नेतृत्व करता है और राज्यपाल को सलाह देता है।
दोनों के बीच सम्बन्ध:
-
सामान्यतः सहयोगात्मक होते हैं।
-
परंतु जब अलग-अलग राजनीतिक दल हों, तब टकराव की संभावना होती है।
सारांश:
राज्यपाल और मुख्यमंत्री के संबंध सहयोग पर आधारित होते हैं, लेकिन कुछ संवैधानिक व राजनीतिक स्थितियों में मतभेद हो सकते हैं।
प्रश्न 2: राज्य में वास्तविक कार्यपालिका कौन है और उसका स्वरूप क्या है?
उत्तर:
राज्य में वास्तविक कार्यपालिका मुख्यमंत्री और उसकी मंत्रीपरिषद होती है।
मुख्य विशेषताएं:
-
मुख्यमंत्री का चयन – राज्यपाल द्वारा, बहुमत वाले दल का नेता।
-
मंत्रिपरिषद – मुख्यमंत्री के नेतृत्व में कार्य करती है।
-
जवाबदेही – विधानसभा के प्रति जिम्मेदार होती है।
-
नीति निर्धारण – योजनाएं बनाना, कानून लागू करना, बजट बनाना आदि कार्य करती है।
सारांश:
राज्य में असली सत्ता मुख्यमंत्री और उसकी मंत्रीपरिषद के पास होती है, जो जनता और विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
प्रश्न 3: मंत्री परिषद क्या है? मुख्यमंत्री से उसके सम्बन्ध क्या है?
उत्तर:
मंत्री परिषद राज्य सरकार का प्रमुख कार्यकारी अंग है जो मुख्यमंत्री के नेतृत्व में काम करती है।
मुख्य बातें:
-
सदस्य: कैबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री और उप मंत्री।
-
कार्य: राज्य की नीतियाँ बनाना और लागू करना।
-
मुख्यमंत्री का नेतृत्व:
– मुख्यमंत्री मंत्रियों का चयन करता है।
– सबकी बैठक की अध्यक्षता करता है।
– राज्यपाल को सलाह देता है।
मुख्यमंत्री और मंत्री परिषद का सम्बन्ध:
मुख्यमंत्री मंत्री परिषद का प्रमुख होता है। उसके बिना परिषद निष्क्रिय होती है। वह समन्वयक और नेतृत्वकर्ता होता है।
सारांश:
मंत्री परिषद सरकार चलाती है और मुख्यमंत्री उसका नेतृत्व करता है। दोनों मिलकर राज्य प्रशासन को दिशा देते हैं।
प्रश्न 4: मुख्यमंत्री और व्यवस्थापिका के सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
मुख्यमंत्री का विधायिका (विधानसभा) से सीधा संबंध होता है क्योंकि वह उसी के प्रति उत्तरदायी होता है।
मुख्य सम्बन्ध:
-
बहुमत का समर्थन:
– मुख्यमंत्री को सरकार चलाने के लिए विधानसभा का विश्वास जरूरी है। -
उत्तरदायित्व:
– मंत्री परिषद विधानसभा के प्रति जिम्मेदार है। -
नीति निर्धारण और कानून निर्माण:
– मुख्यमंत्री विधानसभा में नीतियाँ प्रस्तुत करता है, बहस में भाग लेता है। -
भ्रष्टाचार पर जवाबदेही:
– विपक्ष द्वारा मुख्यमंत्री से सवाल किए जा सकते हैं।
सारांश:
मुख्यमंत्री और विधानसभा का सम्बन्ध लोकतांत्रिक प्रणाली की रीढ़ है। मुख्यमंत्री विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है और वहां से शक्ति प्राप्त करता है।
इकाई 15 – राज्य विधान मंडल
प्रश्न 1: राज्य विधान मंडल पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
राज्य विधान मंडल (State Legislature) किसी राज्य की कानून बनाने वाली संस्था होती है। यह उसी तरह कार्य करता है जैसे केंद्र में संसद। यह दो प्रकार का होता है:
-
एकसदनीय (Unicameral) – सिर्फ एक सदन (विधान सभा)
-
द्विसदनीय (Bicameral) – दो सदन (विधान सभा और विधान परिषद)
वर्तमान में भारत के केवल कुछ राज्यों में द्विसदनीय व्यवस्था है जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र आदि।
मुख्य अंग:
-
राज्यपाल: विधायी प्रक्रिया का हिस्सा होता है।
-
विधान सभा (Legislative Assembly): सीधे जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि होते हैं।
-
विधान परिषद (Legislative Council): स्थायी सदन होता है, जिसमें आंशिक चुनाव होते हैं।
कार्य:
-
कानून बनाना
-
बजट पास करना
-
सरकार को उत्तरदायी बनाना
-
नीतियों की समीक्षा करना
सारांश:
राज्य विधान मंडल राज्य के कानून बनाने और सरकार की निगरानी करने वाला सबसे महत्वपूर्ण अंग है। यह लोकतंत्र को मजबूत करता है।
प्रश्न 2: राज्य विधान मंडल की शक्तियों की विवेचना कीजिये।
उत्तर:
राज्य विधान मंडल को संविधान द्वारा कई शक्तियाँ दी गई हैं, जो राज्य की शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में सहायक होती हैं।
1. विधायी शक्ति:
-
राज्य सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बना सकता है।
-
जैसे – पुलिस, स्वास्थ्य, कृषि, पंचायत आदि।
2. वित्तीय शक्ति:
-
बजट पारित करना, कर लगाना, सरकारी खर्चों को मंजूरी देना।
3. नियंत्रण शक्ति:
-
मुख्यमंत्री और मंत्री परिषद को जवाबदेह बनाना।
-
प्रश्न पूछना, चर्चा करना, विश्वास प्रस्ताव लाना।
4. संविधान संशोधन में भागीदारी (कुछ मामलों में):
-
कुछ संविधान संशोधनों को राज्य विधान मंडल से भी पारित करना जरूरी होता है।
सारांश:
राज्य विधान मंडल राज्य के शासन संचालन की रीढ़ होता है। इसके पास कानून बनाने, धन का प्रबंधन करने और सरकार की निगरानी करने की शक्ति होती है।
इकाई 16 – स्थानीय स्वशासन: पंचायती राज संस्थाएं एवं नगरीय स्वशासन
प्रश्न 1: स्थानीय स्वशासन से क्या तात्पर्य है? स्थानीय स्वशासन व पंचायतों के आपसी संबंधों को स्पष्ट करें।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन का अर्थ है – ग्राम, नगर या क्षेत्र की जनता द्वारा अपने स्थानीय स्तर की समस्याओं और विकास कार्यों का संचालन स्वयं करना।
स्थानीय स्वशासन के अंग:
-
ग्रामीण क्षेत्रों में: पंचायतें (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, जिला परिषद)
-
शहरी क्षेत्रों में: नगर पालिका, नगर परिषद, नगर निगम
पंचायतों और स्थानीय स्वशासन का संबंध:
-
पंचायतें स्थानीय स्वशासन का ही हिस्सा हैं।
-
वे ग्रामीण जनता की आवश्यकताओं को जानती हैं और योजना बनाकर विकास करती हैं।
सारांश:
स्थानीय स्वशासन का उद्देश्य है – जनता को शासन में सीधा भागीदार बनाना। पंचायतें इसका प्रमुख आधार हैं जो ग्रामीण विकास में अहम भूमिका निभाती हैं।
प्रश्न 2: स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता क्यों है? स्थानीय स्वशासन व ग्रामीण विकास में संबंधों की चर्चा करें।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन आवश्यक है क्योंकि:
-
जनता की समस्याएँ स्थानीय स्तर पर जल्दी समझी जाती हैं।
-
स्थानीय लोग अपनी आवश्यकताओं के अनुसार योजना बना सकते हैं।
-
लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं।
ग्रामीण विकास में योगदान:
-
सड़क, बिजली, पानी, स्वच्छता जैसी बुनियादी जरूरतों का समाधान।
-
रोजगार योजनाओं का संचालन (जैसे – मनरेगा)।
-
शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि में सुधार।
सारांश:
स्थानीय स्वशासन से जनता को अपने अधिकारों और जरूरतों के लिए निर्णय लेने का अवसर मिलता है, जिससे ग्रामीण विकास की गति तेज होती है।
प्रश्न 3: 73वें व 74वें संविधान संशोधन की मुख्य बातों की विस्तार से चर्चा कीजिए।
उत्तर:
73वां संविधान संशोधन (1992):
-
ग्राम पंचायतों को संवैधानिक दर्जा मिला।
-
तीन स्तरीय पंचायत व्यवस्था लागू की गई:
-
ग्राम पंचायत
-
पंचायत समिति
-
जिला परिषद
-
मुख्य विशेषताएँ:
-
पंचायती चुनाव हर 5 साल में अनिवार्य
-
अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं को आरक्षण
-
राज्य वित्त आयोग का गठन
74वां संविधान संशोधन (1992):
-
नगर निकायों को संवैधानिक दर्जा मिला।
-
तीन प्रकार के निकाय:
-
नगर पालिका
-
नगर परिषद
-
नगर निगम
-
मुख्य विशेषताएँ:
-
नगर निकायों की शक्तियाँ निश्चित
-
चुनाव आयोग द्वारा नगर निकायों के चुनाव
-
वित्त आयोग की सिफारिशों पर धन का आवंटन
सारांश:
73वां और 74वां संशोधन स्थानीय स्वशासन को मजबूत करने के लिए ऐतिहासिक कदम थे। इनसे पंचायतों और नगर निकायों को संवैधानिक पहचान और अधिकार मिले।
प्रश्न 4: स्थानीय स्वशासन की विशेषताओं और चुनौतियों को स्पष्ट करें।
उत्तर:
विशेषताएँ:
-
जन भागीदारी: आम लोग सीधे शासन में भाग लेते हैं।
-
स्वतंत्र कार्य: पंचायतें और नगर निकाय अपनी योजनाएँ बनाते हैं।
-
आरक्षण व्यवस्था: महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को प्रतिनिधित्व।
चुनौतियाँ:
-
वित्तीय कमी: पंचायतों के पास पर्याप्त पैसा नहीं होता।
-
प्रशिक्षण की कमी: जनप्रतिनिधियों में प्रशासनिक अनुभव की कमी।
-
राजनीतिक हस्तक्षेप: कई बार राज्य सरकारें स्वतंत्रता में बाधा डालती हैं।
सारांश:
स्थानीय स्वशासन में जनता को अधिकार मिलता है, परंतु इसे प्रभावी बनाने के लिए वित्त, प्रशासन और प्रशिक्षण संबंधी समस्याओं को दूर करना जरूरी है।
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