समाजशास्त्र: एक परिचय(Sociology: An Introduction) BASO-N-101

 

~ SYLLABUS :- 

इकाई 01 – समाजशास्त्र का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकृति

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है — 'समाज' + 'शास्त्र'

  • "समाज" का अर्थ होता है लोगों का समूह जो एक साथ रहता है।

  • "शास्त्र" का अर्थ होता है किसी विषय का व्यवस्थित अध्ययन।

इस तरह समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ है – "समाज का वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित अध्ययन।"

सारांश:
समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ है समाज के नियमों, संबंधों और व्यवहारों का वैज्ञानिक अध्ययन।


2. क्या समाजशास्त्र एक विज्ञान है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हाँ, समाजशास्त्र एक विज्ञान है क्योंकि—

  • यह समाज के तथ्यों का अवलोकन, विश्लेषण और परीक्षण करता है।

  • इसमें निष्पक्षता (objectivity) होती है।

  • इसके अध्ययन में पद्धतियों (methods) का प्रयोग होता है जैसे सर्वेक्षण, साक्षात्कार आदि।

हालाँकि समाजशास्त्र में प्रयोगशाला जैसी वैज्ञानिक प्रयोग की सुविधा नहीं होती, फिर भी यह सामाजिक तथ्यों की खोज और व्याख्या करता है।

सारांश:
समाजशास्त्र को सामाजिक विज्ञान कहा जाता है क्योंकि यह समाज का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करता है।


प्रश्न 3: वेबर की समाजशास्त्र की परिभाषा दीजिए।

उत्तर:

मैक्स वेबर (Max Weber) जर्मनी के एक महान समाजशास्त्री थे। वे समाजशास्त्र के व्याख्यात्मक दृष्टिकोण (Interpretative Approach) के प्रमुख प्रवर्तक माने जाते हैं। वे मानते थे कि समाजशास्त्र को केवल सामाजिक संरचनाओं या नियमों का अध्ययन नहीं करना चाहिए, बल्कि व्यक्तियों के अर्थपूर्ण कार्यों (Meaningful Actions) को भी समझना चाहिए।

वेबर की परिभाषा:

“समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं की व्याख्या समझने का प्रयत्न करता है।”

➤ यहाँ "सामाजिक क्रिया" (Social Action) क्या है?

वेबर के अनुसार, सामाजिक क्रिया वह है जो किसी दूसरे व्यक्ति के व्यवहार को ध्यान में रखकर की जाती है। जैसे:

  • अगर कोई व्यक्ति सड़क पर चलते हुए मुस्कुराता है, और सामने वाला भी मुस्कुरा देता है — यह एक सामाजिक क्रिया है।

  • एक शिक्षक विद्यार्थियों को पढ़ाता है — यह भी सामाजिक क्रिया है क्योंकि इसमें अन्य लोगों (विद्यार्थियों) के प्रति व्यवहार शामिल है।

वेबर के अनुसार समाजशास्त्र का कार्य क्या है?

  1. व्यक्ति के कार्यों के पीछे का उद्देश्य समझना।

  2. समाज में क्रियाओं के प्रकार जानना – जैसे परंपरागत, भावनात्मक, मूल्यपरक या साधनात्मक क्रियाएँ।

  3. व्यक्ति किस कारण से कुछ करता है, यह समझना समाजशास्त्र का असली कार्य है।

सारांश:

मैक्स वेबर ने समाजशास्त्र को एक व्याख्यात्मक विज्ञान बताया, जो व्यक्ति की सामाजिक क्रियाओं के अर्थ को समझने का कार्य करता है। उनका दृष्टिकोण व्यवहार के पीछे के "क्यों" को जानने पर केंद्रित था।


प्रश्न 4: गिंसबर्ग द्वारा दी गई समाजशास्त्र की परिभाषा को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

मॉरिस गिंसबर्ग (Morris Ginsberg) एक ब्रिटिश समाजशास्त्री थे जिन्होंने समाजशास्त्र को एक व्यापक और वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में देखा।

गिंसबर्ग की परिभाषा:

“समाजशास्त्र मानव समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है। यह समाज के सामाजिक संबंधों, संस्थाओं और मानव व्यवहार के रूपों को जानने का कार्य करता है।”

गिंसबर्ग के अनुसार समाजशास्त्र किन बातों का अध्ययन करता है?

  1. सामाजिक संबंधों का अध्ययन:
    जैसे परिवार, विवाह, जाति, वर्ग आदि संबंधों को कैसे बनाया जाता है और कैसे निभाया जाता है।

  2. सामाजिक संस्थाओं का अध्ययन:
    जैसे – धर्म, शिक्षा, राजनीति, न्याय व्यवस्था आदि।

  3. मानव आचरण (Behavior) का अध्ययन:
    समाज में व्यक्ति कैसे व्यवहार करता है, यह किन नियमों से प्रभावित होता है, यह भी समाजशास्त्र में आता है।

  4. समाज की संरचना और परिवर्तन:
    समाज कैसे बना, कैसे बदलता है, किस दिशा में आगे बढ़ रहा है, यह भी समाजशास्त्र का विषय है।

गिंसबर्ग की विशेषता क्या है?

  • उन्होंने समाजशास्त्र को एक व्यवस्थित विज्ञान माना।

  • उन्होंने समाज के तथ्यों और साक्ष्यों पर आधारित अध्ययन की बात की।

  • उनके अनुसार समाजशास्त्र केवल दर्शन या सोच नहीं, बल्कि एक तथ्य आधारित वैज्ञानिक अनुशासन है।

सारांश:

गिंसबर्ग ने समाजशास्त्र को मानव समाज के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार यह समाज के संबंधों, संस्थाओं और मानव व्यवहार के अध्ययन से संबंधित है। उन्होंने समाजशास्त्र को एक अनुभव आधारित, व्यवस्थित और तथ्यात्मक विज्ञान माना।


निबंधात्मक प्रश्न

1. समाजशास्त्र क्या है? कुछ प्रमुख परिभाषाओं के संदर्भ में विवेचना कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो मानव समाज, सामाजिक संस्थाओं, परस्पर संबंधों और सामाजिक व्यवहार का अध्ययन करता है।

कुछ प्रमुख परिभाषाएँ:

  • ऑगस्ट कॉम्टे: "समाजशास्त्र समाज की स्थिरता और गतिकता का अध्ययन है।"

  • मैक्स वेबर: "समाजशास्त्र सामाजिक क्रियाओं की व्याख्या करता है।"

  • गिंसबर्ग: "समाजशास्त्र मानव समाज, उसके संबंधों और संस्थाओं का अध्ययन है।"

समाजशास्त्र में विवाह, परिवार, धर्म, राजनीति, शिक्षा, जाति, वर्ग आदि का अध्ययन किया जाता है।

सारांश:
समाजशास्त्र मानव समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है। यह समाज के संबंधों, संस्थाओं और व्यवहारों को समझने का प्रयास करता है।


2. समाजशास्त्र की प्रकृति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र की प्रकृति निम्नलिखित प्रकार की है:

  • विज्ञान के रूप में: यह व्यवस्थित और तर्कपूर्ण पद्धतियों से समाज का अध्ययन करता है।

  • नैतिकता से मुक्त: इसमें नैतिक निर्णय नहीं दिए जाते।

  • तथ्यों पर आधारित: समाज की सच्चाई को समझने का प्रयास किया जाता है।

  • सामाजिक संबंधों पर केंद्रित: यह व्यक्ति के नहीं बल्कि समूहों के व्यवहार को देखता है।

सारांश:
समाजशास्त्र एक तटस्थ, वैज्ञानिक और सामाजिक संबंधों पर केंद्रित अध्ययन है।


3. समाजशास्त्र को परिभाषित करते हुए उसकी प्रकृति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र वह सामाजिक विज्ञान है जो मानव समाज और उसके कार्यकलापों का अध्ययन करता है।

प्रकृति:

  • यह व्यवहारिक और प्रयोगात्मक है।

  • यह निष्पक्ष और वैज्ञानिक होता है।

  • यह समाज के संबंधों, संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर केंद्रित होता है।

  • यह सार्वभौमिक सत्य की खोज करता है।

सारांश:
समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक और तटस्थ अध्ययन है जो सामाजिक जीवन के हर पहलू को समझने की कोशिश करता है।


इकाई 02 – समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र एवं विषय-वस्तु

1. समाजशास्त्र की विषय वस्तु व विषय क्षेत्र पर चर्चा कीजिए।

उत्तर:
समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र और विषय वस्तु बहुत ही व्यापक है क्योंकि यह मानव समाज के हर पहलू को समझने की कोशिश करता है। यह न केवल समाज के ढाँचे को समझता है, बल्कि उसमें होने वाले परिवर्तन, संबंधों और व्यवहारों की भी व्याख्या करता है।

समाजशास्त्र की विषय वस्तु (Subject Matter):

विषय वस्तु का अर्थ है – समाजशास्त्र किन-किन बातों का अध्ययन करता है। इसमें शामिल हैं:

  1. सामाजिक संस्थाएँ (Social Institutions): जैसे – परिवार, विवाह, धर्म, शिक्षा, राजनीति आदि।

  2. सामाजिक प्रक्रियाएँ (Social Processes): जैसे – सहयोग, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा, समायोजन आदि।

  3. सामाजिक संबंध (Social Relations): जैसे – जाति, वर्ग, लिंग, धर्म, नस्ल आदि के आधार पर बनते संबंध।

  4. सांस्कृतिक मूल्य (Cultural Values): समाज में प्रचलित मान्यताएँ, परंपराएँ, रीति-रिवाज आदि।

समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र (Scope):

विषय क्षेत्र का मतलब है – समाजशास्त्र की सीमाएँ कहाँ तक जाती हैं, या इसका अध्ययन किन-किन क्षेत्रों में किया जाता है। इसमें मुख्य दो दृष्टिकोण हैं:

  1. विशेषवादी दृष्टिकोण (Specialistic Approach):
    यह दृष्टिकोण कहता है कि समाजशास्त्र केवल सामाजिक संबंधों का अध्ययन करता है। यह व्यक्ति और समूह के बीच के संबंधों को समझने पर केंद्रित होता है। इस विचार को मैक्स वेबर और गिंसबर्ग जैसे विद्वानों ने समर्थन दिया।

  2. समन्वयवादी दृष्टिकोण (Synthetic Approach):
    यह दृष्टिकोण कहता है कि समाजशास्त्र सभी सामाजिक गतिविधियों का अध्ययन करता है, जैसे – राजनीति, अर्थव्यवस्था, धर्म, संस्कृति आदि। यह व्यापक दृष्टिकोण है जिसे दुर्खीम और सोरेल जैसे समाजशास्त्रियों ने अपनाया।

सारांश:
समाजशास्त्र की विषय वस्तु में समाज के संबंध, संस्थाएँ और प्रक्रियाएँ शामिल हैं। इसका विषय क्षेत्र बहुत विशाल है जिसमें व्यक्ति और समाज के हर प्रकार के संबंध, संगठन और संस्कृति का अध्ययन होता है।


2. "समाजशास्त्र सामूहिक प्रतिनिधित्वों (प्रतिनिधानों) का विज्ञान है" – चर्चा कीजिए।

उत्तर:
यह कथन प्रसिद्ध समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम से जुड़ा है। उन्होंने समाजशास्त्र को “सामूहिक प्रतिनिधित्वों का विज्ञान” कहा।

सामूहिक प्रतिनिधित्व का अर्थ:

सामूहिक प्रतिनिधित्व का मतलब है – एक समाज के लोगों की साझा सोच, विश्वास, नैतिकताएँ, परंपराएँ और सांस्कृतिक मूल्य जो सभी के द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं। ये चीजें व्यक्तिगत नहीं बल्कि समूह की होती हैं।

उदाहरण के लिए –

  • कोई भी धार्मिक रीति-रिवाज,

  • सामाजिक त्यौहार,

  • विवाह की परंपराएँ
    ये सब सामूहिक प्रतिनिधित्व हैं जो समाज के लोग मिलकर अपनाते हैं।

दुर्खीम का विचार:

दुर्खीम का मानना था कि समाज सिर्फ व्यक्तियों का जोड़ नहीं होता, बल्कि उसके पीछे एक सामूहिक चेतना होती है, जो सभी के व्यवहार को निर्देशित करती है। समाजशास्त्र का काम है इस चेतना को समझना।

सारांश:
दुर्खीम ने समाजशास्त्र को सामूहिक प्रतिनिधित्वों का विज्ञान कहा क्योंकि यह समाज के साझा विचारों, परंपराओं और विश्वासों का अध्ययन करता है, जो व्यक्ति से ऊपर होते हैं।


3. स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टवादी संप्रदाय को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:
स्वरूपात्मक संप्रदाय को अंग्रेजी में Specialistic School कहा जाता है। इस विचारधारा को मैक्स वेबर, गिंसबर्ग, और सिमेल जैसे समाजशास्त्रियों ने अपनाया था।

➤ इस विचारधारा के अनुसार:

  • समाजशास्त्र केवल सामाजिक संबंधों (social relations) का अध्ययन करता है।

  • यह कहता है कि समाजशास्त्र को बाकी सामाजिक विज्ञानों से अलग रहना चाहिए और केवल समाज के विशेष पक्षों पर ध्यान देना चाहिए।

  • जैसे कि – जाति, वर्ग, लिंग, समूहों में संबंध आदि।

➤ विशेषता:

  • यह दृष्टिकोण सीमित (narrow) है, लेकिन गहराई से विश्लेषण करता है।

  • इसमें समाजशास्त्र को एक विशेष विषय मानकर सिर्फ सामाजिक संबंधों और क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।

सारांश:
स्वरूपात्मक संप्रदाय मानता है कि समाजशास्त्र को केवल सामाजिक संबंधों का अध्ययन करना चाहिए और यह उसे एक सीमित लेकिन गहन विषय मानता है।


4. समन्वयात्मक संप्रदाय को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:
समन्वयात्मक संप्रदाय को अंग्रेजी में Synthetic School कहते हैं। यह विचार दुर्खीम, सोरोकिन, और हॉब हाउस जैसे समाजशास्त्रियों ने प्रस्तुत किया।

➤ इस दृष्टिकोण के अनुसार:

  • समाजशास्त्र को एक समन्वयात्मक (संपूर्ण) विज्ञान के रूप में देखना चाहिए जो अन्य सभी सामाजिक विषयों जैसे – इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्म, संस्कृति आदि को जोड़कर अध्ययन करे।

  • यह कहता है कि समाज को समझने के लिए हमें विभिन्न पहलुओं को एक साथ जोड़कर देखना होगा।

➤ विशेषता:

  • यह दृष्टिकोण समाजशास्त्र को व्यापक बनाता है।

  • इसमें समाज की संरचना, कार्य, संबंध और परिवर्तन – सबका अध्ययन होता है।

सारांश:
समन्वयात्मक संप्रदाय समाजशास्त्र को एक समग्र विज्ञान मानता है जो समाज के हर पक्ष का अध्ययन करता है, न कि केवल सामाजिक संबंधों का।


इकाई 03 – समाजशास्त्र एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ संबंध

परिचय :- समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है, जो मानव समाज, उसके व्यवहार, संस्थाओं और आपसी संबंधों का अध्ययन करता है। लेकिन यह अकेला विज्ञान नहीं है जो समाज को समझने का प्रयास करता है। इतिहास, अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र, राजनीति शास्त्र और मनोविज्ञान जैसे अन्य सामाजिक विज्ञान भी समाज के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करते हैं। इसीलिए समाजशास्त्र का इन विषयों से गहरा संबंध होता है। नीचे हम समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों के बीच के संबंधों का विस्तृत विश्लेषण करेंगे:


1. समाजशास्त्र और इतिहास के बीच अंतर स्पष्ट कीजिए:

इतिहास अतीत की घटनाओं, युद्धों, शासकों, समाजों और संस्कृतियों के बारे में जानकारी देता है। यह कालक्रम में घटनाओं का अध्ययन करता है, जैसे – भारत का स्वतंत्रता संग्राम, फ्रांसीसी क्रांति आदि। वहीं समाजशास्त्र वर्तमान समाज के संरचनात्मक और क्रियात्मक पक्षों का अध्ययन करता है, जैसे – जाति व्यवस्था, सामाजिक गतिशीलता, वर्ग संघर्ष, विवाह, परिवार आदि।

मुख्य अंतर:

  • इतिहास अतीत की घटनाओं पर आधारित होता है, समाजशास्त्र वर्तमान समाज पर केंद्रित होता है।

  • इतिहास वर्णनात्मक होता है, जबकि समाजशास्त्र विश्लेषणात्मक और वैज्ञानिक होता है।

  • इतिहास व्यक्तियों और घटनाओं पर ध्यान देता है, समाजशास्त्र समूहों और संस्थाओं पर।

फिर भी, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। समाजशास्त्री सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए ऐतिहासिक संदर्भों का सहारा लेते हैं।

सारांश: इतिहास समाज के अतीत को समझाता है, जबकि समाजशास्त्र वर्तमान सामाजिक संरचना और व्यवहार को। दोनों मिलकर समाज के गहरे अध्ययन में सहायक होते हैं।


2. समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में संबंध स्पष्ट कीजिए:

अर्थशास्त्र धन, उत्पादन, वितरण, उपभोग, व्यापार और वित्तीय प्रणालियों का अध्ययन करता है। यह जानने की कोशिश करता है कि संसाधनों का उपयोग कैसे होता है। वहीं, समाजशास्त्र यह देखता है कि आर्थिक गतिविधियाँ समाज को कैसे प्रभावित करती हैं।

उदाहरण: गरीबी, बेरोजगारी, औद्योगीकरण, उपभोक्तावाद, वर्ग विभाजन आदि विषय दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रमुख संबंध:

  • दोनों ही समाज में संसाधनों के वितरण और प्रभाव को समझते हैं।

  • समाजशास्त्र आर्थिक असमानता और इसके सामाजिक प्रभावों का अध्ययन करता है।

  • दोनों ही सामाजिक नीतियों के निर्माण में योगदान देते हैं।

सारांश: अर्थशास्त्र संसाधनों की बात करता है, जबकि समाजशास्त्र उनके सामाजिक प्रभाव की। दोनों विषय एक-दूसरे के पूरक हैं और समाज की संपूर्ण समझ में सहायक हैं।


3. समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के बीच अंतर स्पष्ट कीजिए:

मानवशास्त्र मुख्यतः प्राचीन और आदिम समाजों का अध्ययन करता है – उनकी संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराएँ, जीवनशैली आदि। यह शारीरिक विकास, पुरातत्व और सामाजिक विकास का अध्ययन करता है।

समाजशास्त्र आधुनिक समाज, उसकी संस्थाओं और संबंधों का अध्ययन करता है।

अंतर:

  • मानवशास्त्र प्राचीन समाजों पर केंद्रित है; समाजशास्त्र आधुनिक समाज पर।

  • मानवशास्त्र में सांस्कृतिक अध्ययन प्रमुख होता है; समाजशास्त्र में संस्थाओं और प्रक्रियाओं का।

  • मानवशास्त्र तुलनात्मक अध्ययन करता है; समाजशास्त्र वर्तमान विश्लेषण करता है।

फिर भी, दोनों में समानता है क्योंकि दोनों समाज के ढाँचे और व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं।

सारांश: मानवशास्त्र और समाजशास्त्र दोनों सामाजिक जीवन का अध्ययन करते हैं, पर एक प्राचीन समाज को देखता है और दूसरा आधुनिक समाज को।


4. समाजशास्त्र और राजनीतिक शास्त्र के बीच अंतर स्पष्ट कीजिए:

राजनीतिक शास्त्र सत्ता, शासन, सरकार, नीति निर्माण, संविधान आदि का अध्ययन करता है। यह देखता है कि एक समाज को कैसे नियंत्रित और संगठित किया जाता है।

समाजशास्त्र यह समझता है कि समाज में सत्ता कैसे कार्य करती है, लोगों का राजनीतिक व्यवहार कैसा है, समाज और राजनीति में किस तरह के संबंध हैं।

मुख्य अंतर:

  • राजनीतिक शास्त्र सत्ता और शासन पर केंद्रित है; समाजशास्त्र सामाजिक संबंधों और संरचनाओं पर।

  • राजनीतिक शास्त्र संस्थागत ढाँचे को देखता है; समाजशास्त्र उन संस्थाओं का सामाजिक प्रभाव देखता है।

  • समाजशास्त्र राजनीति का समाज पर प्रभाव और समाज का राजनीति पर प्रभाव दोनों का अध्ययन करता है।

सारांश: राजनीतिक शास्त्र समाज में सत्ता की भूमिका को समझता है, और समाजशास्त्र सत्ता को समाज के व्यापक संदर्भ में देखता है। दोनों विषय मिलकर समाज और शासन की संपूर्ण समझ प्रदान करते हैं।


इकाई 04 – समाज : अर्थ, विशेषताएँ, समाज एवं एक समाज, मानव एवं पशु समाज

1. समाज क्या है? ‘समाज’ एवं ‘एक समाज’ में अंतर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:
"समाज" शब्द बहुत सामान्य लग सकता है, लेकिन इसका अर्थ गहरा और महत्वपूर्ण होता है। समाज का तात्पर्य है – एक ऐसा समूह जिसमें लोग आपसी संबंधों, सहयोग, नियमों और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर एक साथ रहते हैं और जीवन जीते हैं।

समाज का अर्थ:

समाज एक ऐसा ढाँचा है जिसमें लोग आपसी बातचीत करते हैं, रिश्ते बनाते हैं, एक-दूसरे से सहयोग करते हैं, संघर्ष भी करते हैं और मिलकर जीवन के नियम व परंपराएँ बनाते हैं।
यह केवल व्यक्तियों का समूह नहीं होता, बल्कि एक संगठित प्रणाली होती है जिसमें सभी के व्यवहार और भूमिकाएँ आपस में जुड़ी होती हैं।

‘समाज’ और ‘एक समाज’ में अंतर:

बिंदुसमाजएक समाज
अर्थसमाज एक व्यापक धारणा है जिसमें मानव समूहों की सभी सामाजिक गतिविधियाँ आती हैं।एक समाज किसी विशेष समूह को दर्शाता है, जैसे भारतीय समाज, आदिवासी समाज आदि।
उदाहरणपूरी मानवता या सभी समाज मिलकर एक समाजशास्त्रीय 'समाज' बनाते हैं।हिंदू समाज, मुस्लिम समाज, ग्रामीण समाज, नगरीय समाज आदि।
प्रभावइसका अध्ययन सामाजिक सिद्धांतों और प्रक्रियाओं पर आधारित होता है।इसका अध्ययन विशेष सांस्कृतिक, धार्मिक या भौगोलिक संदर्भ में होता है।
सारांश:

समाज एक व्यापक सामाजिक प्रणाली है, जबकि 'एक समाज' किसी विशेष सामाजिक समूह को दर्शाता है जिसकी अपनी विशेषताएँ, परंपराएँ और मान्यताएँ होती हैं।


2. समाज का अर्थ एवं विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

समाज का अर्थ:

समाज एक संगठित समूह होता है जिसमें लोग आपसी संबंधों, नियमों, परंपराओं और सांस्कृतिक जीवन के साथ जुड़े रहते हैं। यह केवल लोगों की भीड़ नहीं है, बल्कि एक ऐसी संरचना है जिसमें संबंध, भूमिका, परंपरा और संस्कृति शामिल होती है।

समाज की प्रमुख विशेषताएँ:

  1. सामाजिक संबंध:
    समाज का आधार लोगों के बीच बने संबंध होते हैं। माता-पिता, भाई-बहन, शिक्षक-छात्र जैसे संबंध समाज में मौजूद होते हैं।

  2. सांस्कृतिक एकता:
    समाज के लोग एक जैसी भाषा, धर्म, रीति-रिवाज, मूल्य आदि को साझा करते हैं।

  3. सहयोग और संघर्ष:
    समाज में लोग आपसी मदद करते हैं लेकिन कभी-कभी उनके बीच मतभेद और संघर्ष भी होते हैं।

  4. नियम और कानून:
    समाज में जीवन को नियंत्रित करने के लिए नियम, कानून और नैतिक मानदंड बनाए जाते हैं।

  5. निरंतरता:
    समाज निरंतर चलता रहता है। पीढ़ियाँ आती हैं और जाती हैं लेकिन समाज अपनी पहचान बनाए रखता है।

  6. संस्थाओं की उपस्थिति:
    समाज में विवाह, परिवार, धर्म, शिक्षा जैसी संस्थाएँ होती हैं जो जीवन को संगठित करती हैं।

सारांश:
समाज एक संगठित व्यवस्था है जो सामाजिक संबंधों, संस्कृति, नियमों और संस्थाओं पर आधारित होती है। यह मानव जीवन का अनिवार्य हिस्सा है।


3. समाज एवं पशु समाज में अंतर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:
मानव समाज और पशु समाज में कई तरह के अंतर होते हैं। यद्यपि कुछ सामाजिक व्यवहार पशुओं में भी देखे जा सकते हैं, लेकिन मानव समाज बहुत ही जटिल और विकसित होता है।

मुख्य अंतर:

बिंदुमानव समाजपशु समाज
संचार का माध्यम 
भाषा, संकेत, लेखन आदि का उपयोग करता है                              ध्वनि, गंध, इशारों के माध्यम से संचार करता है
संस्कृतिसांस्कृतिक मूल्य, परंपराएँ, रीति-रिवाज होते हैंकोई सांस्कृतिक विकास नहीं होता
संस्थाएँविवाह, परिवार, शिक्षा, धर्म जैसी संस्थाएँ होती हैंकोई स्थायी सामाजिक संस्था नहीं होती
नैतिकता और कानूननियम, कानून, नैतिक मूल्य मौजूद होते हैंइनका कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं होता
परिवर्तनशीलतासमाज बदलता और विकसित होता हैपशु समाज एक जैसा बना रहता है
सारांश:

मानव समाज बौद्धिक, सांस्कृतिक और संगठित होता है, जबकि पशु समाज केवल जैविक और स्वाभाविक होता है। मानव समाज में विकास और परिवर्तन की संभावनाएँ होती हैं, पशु समाज में नहीं।


इकाई 05 – समुदाय: अर्थ एवं विशेषताएँ

प्रश्न 1: समुदाय की परिभाषा दीजिए। समुदाय की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।

उत्तर:
समुदाय एक ऐसा सामाजिक समूह होता है जिसके सदस्य एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहते हैं, एक-दूसरे के साथ नियमित रूप से संपर्क में रहते हैं, और सांस्कृतिक समानताओं को साझा करते हैं। समुदाय का आधार भावनात्मक जुड़ाव, पारस्परिक सहयोग और एकता होता है।

समुदाय का निर्माण तब होता है जब लोग केवल एक साथ नहीं रहते, बल्कि उनके बीच संबंध, भावनाएँ, अनुभव और परंपराएँ भी जुड़ी होती हैं।

समुदाय की परिभाषाएँ:

  • मैकाइवर और पेज के अनुसार:
    "समुदाय वह समूह है जिसमें लोग एक निश्चित क्षेत्र में रहते हैं और उनके बीच सामाजिक संबंध होते हैं।"

  • किंग्सले डेविस के अनुसार:
    "समुदाय एक ऐसा क्षेत्रीय समूह है जहाँ लोगों में एकता, समानता और परस्पर संबंध होते हैं।"

समुदाय की प्रमुख विशेषताएँ:

  1. भौगोलिक क्षेत्र (Geographical Area):
    हर समुदाय का एक निश्चित स्थान होता है जैसे गाँव, नगर, या मोहल्ला। वहाँ के लोग उस स्थान से भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं।

  2. सामाजिक संबंध (Social Relationships):
    समुदाय में लोग आपस में अच्छे संबंध बनाए रखते हैं। वे एक-दूसरे को जानते हैं और पारस्परिक सहायता करते हैं।

  3. सांस्कृतिक समानता (Cultural Similarity):
    समुदाय के लोगों की भाषा, रीति-रिवाज, परंपराएँ, त्योहार आदि मिलते-जुलते होते हैं, जिससे उनमें एकता का भाव होता है।

  4. भावनात्मक जुड़ाव (Emotional Attachment):
    समुदाय के सदस्य अपने समुदाय से भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। उन्हें अपने समुदाय पर गर्व होता है।

  5. नैतिक नियम और परंपराएँ:
    हर समुदाय के अपने नैतिक नियम होते हैं जिनका पालन करना सभी को जरूरी होता है, जैसे— एक-दूसरे की मदद करना, बड़ों का सम्मान करना आदि।

  6. स्थायित्व (Stability):
    समुदाय एक स्थायी इकाई होती है। इसके सदस्य लंबे समय तक एक ही स्थान पर रहकर जीवन जीते हैं।

  7. आत्म-संतोष (Self-sufficiency):
    समुदाय के लोग अपनी दैनिक जरूरतों को स्थानीय स्तर पर ही पूरा करने का प्रयास करते हैं।

सारांश:

समुदाय एक ऐसा संगठित सामाजिक समूह होता है जिसमें लोग एक निश्चित क्षेत्र में रहते हैं, एक जैसी सांस्कृतिक पहचान रखते हैं और आपसी सहयोग व भावनात्मक जुड़ाव से बंधे होते हैं। समुदाय मानव जीवन में सुरक्षा, पहचान और सामाजिक संबंधों का आधार प्रदान करता है।


प्रश्न 2: जाति को एक समुदाय क्यों नहीं कहा जा सकता? विवेचना कीजिए।

उत्तर:
जाति एक सामाजिक वर्ग है, जो जन्म पर आधारित होती है। यह समाज में लोगों के वर्गीकरण की एक प्रणाली है, जिसमें लोगों के पेशे, विवाह, खान-पान और रहन-सहन के तरीके निश्चित होते हैं। लेकिन जाति को एक समुदाय नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें समुदाय जैसी अनेक विशेषताएँ नहीं होतीं।

जाति और समुदाय में अंतर के कारण:

  1. भौगोलिक क्षेत्र की कमी:
    जाति का कोई निश्चित क्षेत्र नहीं होता, जबकि समुदाय एक भौगोलिक क्षेत्र में सीमित होता है। जाति के सदस्य विभिन्न स्थानों में फैले हो सकते हैं।

  2. भावनात्मक जुड़ाव की कमी:
    जाति में केवल सामाजिक नियम होते हैं, भावनात्मक संबंध उतने मजबूत नहीं होते जितने समुदाय में होते हैं।

  3. सामाजिक संबंध सीमित:
    जाति के भीतर विवाह, खानपान और मेलजोल सीमित होते हैं, जबकि समुदाय में सभी लोग आपस में खुले संबंध रखते हैं।

  4. सांस्कृतिक विविधता:
    जातियाँ सांस्कृतिक रूप से एकरूप नहीं होतीं। एक ही स्थान पर कई जातियाँ होती हैं जिनकी परंपराएँ अलग-अलग होती हैं।

  5. सहयोग की भावना कम:
    जाति में ऊँच-नीच, भेदभाव और अलगाव की भावना होती है, जबकि समुदाय में एकता और सहयोग होता है।

उदाहरण:

कोई ब्राह्मण जाति के लोग देशभर में हो सकते हैं, लेकिन वे एक स्थान पर नहीं रहते, एक-दूसरे से संपर्क नहीं रखते और उनमें भावनात्मक जुड़ाव या सामाजिक सहयोग भी सीमित होता है। इसीलिए उन्हें समुदाय नहीं कहा जा सकता।

सारांश:

जाति जन्म पर आधारित सामाजिक वर्ग है, जिसमें सीमित संबंध और अलगाव होता है। जबकि समुदाय एक क्षेत्र विशेष में रहने वाले लोगों का समूह होता है जिसमें परस्पर सहयोग, सामाजिक एकता और भावनात्मक जुड़ाव होता है। इसलिए जाति को एक समुदाय नहीं कहा जा सकता।


इकाई 06 – प्रस्थिति की अवधारणा: अर्थ, विशेषताएँ, आधार एवं प्रकार

प्रश्न 1: प्रस्थिति से आप क्या समझते हैं? इसकी पारिभाषिक व्याख्या कीजिए।

उत्तर:
प्रस्थिति (Status) समाजशास्त्र का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और मूलभूत सिद्धांत है। यह शब्द व्यक्ति की सामाजिक स्थिति या समाज में उसका दर्जा दर्शाता है।

हर व्यक्ति समाज में एक से अधिक भूमिकाएँ निभाता है – जैसे बेटा, छात्र, डॉक्टर, पिता, नागरिक आदि। ये सारी भूमिकाएँ सामाजिक दृष्टिकोण से उसकी "प्रस्थिति" को दर्शाती हैं। समाज में एक व्यक्ति को उसके काम, जन्म, शिक्षा, उम्र, लिंग आदि के आधार पर एक विशेष दर्जा प्राप्त होता है — यही उसका सामाजिक प्रस्थिति कहलाता है।

प्रस्थिति की परिभाषाएँ:

  • लिंटन (Linton) के अनुसार:
    “प्रस्थिति वह सामाजिक स्थान है जो किसी व्यक्ति को समाज में दिया जाता है।”

  • राल्फ लिंटन ने प्रस्थिति को समाज के द्वारा मान्यता प्राप्त स्थान के रूप में देखा है, जिसमें व्यक्ति को कुछ कर्तव्य (duties) और अधिकार (rights) मिलते हैं।


प्रश्न 2: प्रस्थिति की मूलभूत विशेषताएँ बताइए।

उत्तर:
प्रस्थिति की विशेषताएँ यह स्पष्ट करती हैं कि समाज में व्यक्ति की भूमिका कैसे तय होती है और वह समाज में किस स्थान पर है।

प्रमुख विशेषताएँ:

  1. सामाजिक मान्यता:
    प्रस्थिति व्यक्ति को समाज द्वारा दी जाती है। यह समाज में उसके स्थान और कर्तव्यों को दर्शाती है।

  2. विभिन्न प्रकार की:
    एक व्यक्ति के पास एक से अधिक प्रस्थितियाँ होती हैं – जैसे वह एक समय में पिता, शिक्षक और नागरिक हो सकता है।

  3. कर्तव्यों और अधिकारों से जुड़ी:
    हर प्रस्थिति के साथ कुछ निश्चित अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ जुड़ी होती हैं, जिन्हें निभाना व्यक्ति का कर्तव्य होता है।

  4. संबंधों से निर्धारित:
    व्यक्ति की प्रस्थिति उसके संबंधों (जैसे – पति, पत्नी, भाई, बहन आदि) से भी तय होती है।

  5. परिवर्तनशील:
    कुछ प्रस्थितियाँ व्यक्ति के जीवन में समय के साथ बदलती रहती हैं, जैसे – छात्र से शिक्षक बनना।

  6. सामाजिक असमानता का आधार:
    समाज में कुछ प्रस्थितियाँ ऊँच मानी जाती हैं और कुछ नीच। यह असमानता जाति, वर्ग, लिंग आदि के आधार पर देखी जाती है।


प्रश्न 3: प्रदत्त व अर्जित प्रस्थिति में अंतर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:
प्रस्थिति दो प्रकार की होती है – प्रदत्त (Ascribed) और अर्जित (Achieved)। यह दोनों व्यक्ति के समाज में स्थान प्राप्त करने के तरीके को दर्शाती हैं।

बिंदुप्रदत्त प्रस्थितिअर्जित प्रस्थिति
अर्थ                                    
जन्म से प्राप्त प्रस्थिति                    प्रयासों से प्राप्त प्रस्थिति
उदाहरणजाति, लिंग, धर्म, परिवारडॉक्टर, शिक्षक, नेता, खिलाड़ी
परिवर्तनशीलताआमतौर पर स्थायीबदल सकती है
नियंत्रणव्यक्ति का कोई नियंत्रण नहींपूरी तरह व्यक्ति के प्रयास पर निर्भर
आधारजन्म आधारितयोग्यता, शिक्षा, मेहनत

स्पष्ट उदाहरण:
  • यदि कोई व्यक्ति ब्राह्मण जाति में जन्म लेता है तो यह उसकी प्रदत्त प्रस्थिति है।

  • यदि वही व्यक्ति डॉक्टर बनता है तो यह उसकी अर्जित प्रस्थिति है।


प्रश्न 4: प्रस्थिति की परिभाषा दीजिए एवं इसके प्रकारों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर:
जैसा पहले बताया गया, प्रस्थिति समाज में व्यक्ति का वह स्थान या दर्जा है, जो उसे समाज द्वारा दिया गया है। यह दर्जा व्यक्ति को पहचान, कर्तव्य और अधिकार प्रदान करता है।

प्रस्थिति के मुख्य प्रकार:

  1. प्रदत्त प्रस्थिति (Ascribed Status):
    यह प्रस्थिति व्यक्ति को जन्म के साथ मिलती है। जैसे – जाति, लिंग, धर्म, नस्ल आदि। व्यक्ति इस पर कोई नियंत्रण नहीं रखता।

  2. अर्जित प्रस्थिति (Achieved Status):
    यह प्रस्थिति व्यक्ति के प्रयास, योग्यता, शिक्षा और मेहनत से प्राप्त होती है। जैसे – डॉक्टर, शिक्षक, अफसर आदि।

  3. मुख्य प्रस्थिति (Master Status):
    यह वह विशेष प्रस्थिति होती है जिससे व्यक्ति की सामाजिक पहचान सबसे ज्यादा जुड़ी होती है।
    उदाहरण: एक व्यक्ति अगर डॉक्टर है, तो लोग उसे उसी के रूप में पहचानते हैं — यही उसकी मुख्य प्रस्थिति है।

  4. अनौपचारिक और औपचारिक प्रस्थिति:

    • औपचारिक प्रस्थिति वह होती है जिसे संस्था मान्यता देती है, जैसे – सरकारी अधिकारी।

    • अनौपचारिक प्रस्थिति वह होती है जो समाज की मान्यता से बनती है, जैसे – बुज़ुर्गों का सम्मान।

सारांश:

प्रस्थिति समाज में व्यक्ति का वह स्थान है जिसे वह जन्म से या अपने प्रयासों से प्राप्त करता है। यह स्थान समाज में उसकी पहचान, कर्तव्यों और अधिकारों को तय करता है। प्रस्थिति सामाजिक जीवन की व्यवस्था को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


इकाई 07 – भूमिका: अर्थ, विशेषताएँ, प्रस्थिति एवं भूमिका में संबंध

प्रश्न 1: भूमिका से आप क्या समझते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।

उत्तर:
भूमिका (Role) समाजशास्त्र में एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणा है। जब कोई व्यक्ति समाज में किसी विशेष प्रस्थिति (Status) को प्राप्त करता है, तो उससे समाज कुछ उम्मीदें रखता है — जैसे वह किस तरह का व्यवहार करेगा, कैसे बोलेगा, क्या करेगा आदि।
इन अपेक्षित व्यवहारों को ही भूमिका कहा जाता है।

उदाहरण:
यदि कोई व्यक्ति एक शिक्षक है (यह उसकी प्रस्थिति है), तो उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह विद्यार्थियों को पढ़ाए, अनुशासन बनाए रखे, समय पर कक्षा ले आदि। यह सब उसकी भूमिका है।

भूमिका की परिभाषा:

  • लिंटन के अनुसार:
    "जब कोई व्यक्ति समाज में कोई प्रस्थिति प्राप्त करता है, तो उससे जुड़े व्यवहार की जो अपेक्षा की जाती है, वही भूमिका कहलाती है।"

  • पारसन्स के अनुसार:
    "भूमिका वह तरीका है जिससे व्यक्ति समाज की संरचना में कार्य करता है।"


भूमिका की प्रमुख विशेषताएँ:

  1. प्रस्थिति से जुड़ी होती है:
    हर भूमिका किसी न किसी प्रस्थिति के साथ जुड़ी होती है। जैसे पिता की भूमिका, छात्र की भूमिका, डॉक्टर की भूमिका आदि।

  2. समाज की अपेक्षाओं पर आधारित:
    समाज प्रत्येक भूमिका से कुछ निश्चित व्यवहारों की अपेक्षा करता है। यह भूमिका उसी अनुरूप निभाई जाती है।

  3. गतिशील (Dynamic) होती है:
    भूमिकाएँ समय, स्थान और स्थिति के अनुसार बदलती रहती हैं। जैसे एक व्यक्ति घर पर पिता होता है, तो बाहर ऑफिस में कर्मचारी।

  4. एक व्यक्ति की अनेक भूमिकाएँ:
    समाज में एक व्यक्ति कई भूमिकाएँ एक साथ निभा सकता है — जैसे वह एक समय में बेटा, भाई, छात्र और मित्र हो सकता है।

  5. सीखी जाती हैं (Learned):
    भूमिकाएँ जन्म से नहीं आतीं, इन्हें व्यक्ति जीवन के अनुभवों, समाजीकरण और शिक्षा के माध्यम से सीखता है।

  6. सामाजिक नियंत्रण में सहायक:
    भूमिकाओं की वजह से व्यक्ति सीमित और नियंत्रित व्यवहार करता है, जिससे समाज में व्यवस्था बनी रहती है।


प्रश्न 2: भूमिका को परिभाषित कीजिए तथा इसके प्रमुख तत्व बताइए।

उत्तर:
जैसा कि ऊपर बताया गया, भूमिका वह व्यवहार है जो किसी सामाजिक प्रस्थिति के आधार पर व्यक्ति से अपेक्षित होता है। यह सामाजिक प्रणाली का आवश्यक हिस्सा होती है।

भूमिका के प्रमुख तत्व:

  1. प्रस्थिति (Status):
    भूमिका प्रस्थिति पर आधारित होती है। बिना किसी सामाजिक स्थिति के भूमिका की कल्पना नहीं की जा सकती।

  2. अपेक्षाएँ (Expectations):
    समाज व्यक्ति की भूमिका से कुछ अपेक्षाएँ रखता है – जैसे माता से स्नेह, शिक्षक से शिक्षा, पुलिस से सुरक्षा।

  3. व्यवहार (Performance):
    व्यक्ति को यह तय करना होता है कि वह अपनी भूमिका कैसे निभाएगा। यह प्रदर्शन उसका सामाजिक आचरण होता है।

  4. सीमा (Limitations):
    हर भूमिका की कुछ सीमाएँ होती हैं – व्यक्ति अपनी इच्छा से पूरी तरह स्वतंत्र नहीं होता।

  5. भूमिका संघर्ष (Role Conflict):
    जब एक व्यक्ति की दो भूमिकाओं में टकराव हो जाए, जैसे— एक डॉक्टर को ऑपरेशन करना है लेकिन उसी समय पिता को अस्पताल ले जाना है — तो यह भूमिका संघर्ष कहलाता है।


प्रश्न 3: प्रस्थिति एवं भूमिका में संबंध स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:
प्रस्थिति और भूमिका एक-दूसरे से गहरे रूप से जुड़ी हुई हैं।
प्रस्थिति एक व्यक्ति का समाज में स्थान बताती है, जबकि भूमिका यह बताती है कि वह व्यक्ति उस स्थान पर रहकर कैसा व्यवहार करेगा।

मुख्य संबंध इस प्रकार हैं:

  1. भूमिका, प्रस्थिति का क्रियात्मक पक्ष है:
    यानी प्रस्थिति एक निष्क्रिय स्थिति है, जबकि भूमिका वह सक्रिय कार्य है जो उस स्थिति से जुड़ा होता है।

  2. प्रस्थिति पहले आती है, भूमिका बाद में:
    जब व्यक्ति को समाज में कोई स्थिति मिलती है, तभी वह भूमिका निभाना शुरू करता है। जैसे कोई 'माता' बनी, तभी 'माता की भूमिका' शुरू होती है।

  3. दोनों एक-दूसरे पर निर्भर:
    यदि व्यक्ति को कोई प्रस्थिति नहीं मिली, तो कोई भूमिका नहीं होगी; और अगर कोई भूमिका नहीं निभाई, तो उसकी प्रस्थिति का कोई महत्व नहीं रहेगा।

  4. बहु-प्रस्थिति और बहु-भूमिका:
    एक व्यक्ति के पास अनेक प्रस्थितियाँ होती हैं, जिससे उसे कई भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं।

  5. समाज में व्यवस्था बनाए रखने का साधन:
    प्रस्थिति और भूमिका के संयोजन से समाज में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका स्पष्ट होती है, जिससे समाज सुचारु रूप से चलता है।

सारांश:

प्रस्थिति समाज में व्यक्ति की स्थिति है और भूमिका उस स्थिति से जुड़ा सामाजिक व्यवहार। प्रस्थिति स्थिर होती है जबकि भूमिका सक्रिय होती है। दोनों का समाज में अनुशासन और संतुलन बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

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